अच्छा न कर सकते तो बुरा तो ज़रूर कर सकते, अब क्या देगा बोल?
- The Symbol of Faith
- Nov 30, 2024
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अच्छा न कर सकते तो बुरा तो ज़रूर कर सकते, अब क्या देगा बोल?
(बद्ध जीवों के गुरु दर्शन में लघु दर्शन ही स्वाभाविक है)
पहली बात यह है कि “विभ्रान्त निरशन” नाम का कोई किताब श्री दास बाबा के द्वारा सम्पादित हो प्रकाशित हुई थी ऐसी कोई खबर हम लोगों के पास नहीं है, ऊपर से इसके भाषा में भी दोष है क्योंकि लिखना उचित था “विभ्रांति निरशन”। तरह-तरह की जटिल-कुटिल विभ्रांतिमूलक सिद्धांतगत समस्याएँ तथा स्व-साम्प्रदायिक मर्यादा रक्षनमूलक समस्याओं को श्री दास बाबा आज तक बहुत सुचारू रूप से समाधान करते आये हैं — यह बात कौन नहीं जानता । अचानक विगत १७/११/२०२३ रविवार को फेसबुक अकाउंट ‘श्री भक्ति सुंदर पर्यटक’ नाम से बिना कोई कारण झूठे प्ररोचनामूलक कुछ तथ्य परिवेषित किया गया है, जो की संपूर्ण निराधार है। यद्यपि हम लोगों के पास समय का बड़ा अभाव है तथापि कुछ अमूल्य समय खर्चा होने पर भी जवाब नहीं देने से चलेगा नहीं यह लोग सांपों के पाँच पैर देखेंगे।
दूसरी बात यह है कि श्री दास बाबा का ऐकांतिक स्नेह पात्र लेखक महाशय का ऐसा आक्रोशभाव व मतिभ्रम का मूल कारण क्या हो सकता है? यह लेखनी पढ़कर लोगों को समझने में देरी नहीं लगेगी कि किसी भजहरि मन्ना (७० के दशक के एक बंगाली गाने का किरदार) ने इस प्रकार का हास्यप्रद लेखनी लिखा है ।
गौड़ीय गोष्टिपति श्रीश्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद परमहंस जगद्गुरु जी ने बताया— “बद्ध जीव अपने मंगल को खोजने जाये तो अधिक से अधिक अमंगल को ही वरण कर लेता है ।”अर्थात् मंगल में अमंगल दर्शन और अमंगल में मंगल दर्शन ही बद्ध जोवों का नैसर्गिक स्वभाव है। श्रील प्रभुपाद और भी कहते थे,— “हमारे ऐकांतिक शत्रु का भी (अर्थात् मैं हम किसी का शत्रु नहीं होने पर भी किसी के द्वारा बेवजह हमें महाशत्रु समझकर हमारा सर्वनाश को चाहने वाले) अमंगल कामना कदापि हमारे हृदय में उदित न हो जाए ,भगवद् चरणों में यह ही मेरी स्वकातर प्रार्थना है।” सभी कुछ विपरीत होने के बाद भी सर्वमंगलमय भगवद् इच्छा से सब कुछ अनुकूल दर्शन करने का नाम वैकुण्ठ दर्शन हैं, इसीलिए श्री दास बाबा आप लोगों के चरणों में सदा कृतज्ञता ज्ञापन करना चाहते हैं । पहले ही आप लोगों को अभिनंदन ज्ञापन करना चाहिए इस तरह का एक अनोखा व्यतिरेकमुखी प्रचार व्यवस्था करने के लिए। नीति शास्त्रोक्त नीचे दिये गए एक अमूल्य श्लोक का विचार करना चाहिए:
“सदयं हृदयं यस्य वाचः सत्य भूषितं ।
कायः परहितं यस्य कलिः तस्य करोति किम्?।।”
अर्थात् जिनका हृदय सबके वास्तविक मंगल अन्वेशन करने के लिए कातर है, जिनका वाक्य सर्वदा सत्य से विभूषित है, जिनका अपना शरीर दुसरों के हित के लिए नियोजित है, कलि इनका क्या नुक़सान कर सकता है? शुरू से लेकर अंत तक जिनका जीवन केवल श्रील प्रभुपाद एवं श्रील भक्तिविनोद ठाकुर— वे तो सचमुच ही महानिंदा, घृणा तथा समालोचना का योग्य पात्र ही हैं, इसमें किसी प्रकार के संशय का अवकाश कहाँ है? श्रील प्रभुपाद को भी सहजिया व्यभिचारियों ने विश्व निन्दुक मानकर नरक में चले गए, क्योंकि उन्होंनें इन लोगों का नंगे (असली) स्वरूप का उन्मोचन कर दिया करते थे । श्रील प्रभुपाद प्रायः कहते थे— “A Fraud Sadhu should be brought into the notice of Public” ( कपट साधु को जन समाज में चिन्हित कर देना चाहिए) किंतु श्रील प्रभुपाद और भी कहते थे कि— “चोर बोले वो ही चोर हैं” — ऐसा ही भयंकर युग आ गया कि सचाई की कोई क़ीमत नहीं है। जिस प्रकार ‘साग से कभी मछली को ढकना संभव नहीं है’ अथवा ‘हाथ से सूरज को ढकना संभव नहीं है’, उसी प्रकार इनके (श्री दास बाबा का) अनलस परम सत्य प्रचेष्ठाओं को लोगों के सामने कलुषित दिखाने की चेष्टा एक प्रकार का नादानी प्रतीत होता है, चूंकि तमाम विश्व कम-अधिक उन्हें जानते, पहचानते और सम्मान करते हैं । सचमुच आप लोगों के intelligent group के द्वारा लिखा हुआ यह गप विश्वास न होने पर भी अतीव चमत्कार हुआ है, लेकिन यह बड़ा ही दुख दायक विषय है कि इस गप का संपूर्ण background ही baseless अथवा निराधार है, इसी कारण आम लोगों को यह विश्वास दिलाना संभव नहीं है अर्थात् यह गप सम्पूर्ण flop प्रतीत होगा। सिर्फ़ इतना ही नहीं, यह लेखनी अवश्य ही किसी एक विद्वान व्यक्ति के द्वारा शुरू से अन्त तक बिना संशोधन या संपादन करवाये प्रकाश करना नहीं चाहिएँ था ऐसा ही प्रतीत होता है।
एक ओर जिन्हें कोई genius or jewel बोलकर सम्मानित करता है, तो दूसरी ओर कोई-कोई इनकी अकैतव सत्य के प्रति प्रबल निष्ठा देख कर इन्हें अपने लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा के प्रतिकूल विचार कर जानवर भी कह सकता है, लेकिन यह सारे अतीव तुच्छ विषयों से यह सदा सर्वदा ही उदासीन रह कर केवल मात्र निज भजन सर्वस्य, परार्थपरतामय गुरु सेवा में नियोजित रहते है, एवं ऐकान्तिक रूप में जिन्होंने स्व सांप्रतादिक स्वार्थ संग्रक्षण में ही व्यस्थ रहते हैं, इनको अवश्य ही अतीव सहिष्णुता सम्पन्न बोल कर जानना उचित है, क्योंकि वह अगर ‘तृणादपि सुनीच’ श्लोक के आदर्श नहीं है तो फिर इस प्रकार की निरवच्छिन्न गौर वाणी सेवा इनके द्वारा संभव नहीं हो सकता है। लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा ही यदि अगर इनके जीवन का उद्देश्य होता तो फिर किस कारण इनको इन सब विषयों में अभी तक उदासीनता है? आज तक जिसका अपना एक सामान्य बैंक का खाता या अकाउंट नहीं है, जिन्होंने तमाम ज़िंदगी निष्किंचिन भाव से जीते आ रहे हैं, जिनकी तमाम प्रणामी तक ग्रंथ आदि प्रकाशन अथवा वाणी सेवा में उत्सर्गिकृत है, वह तो निश्चित ही हम लोगों द्वारा निंदा अथवा समालोचना के योग्य पात्र ही है।
मठ मंदिर निर्माण, शिष्य बनाने अथवा विदेश गमनादि सारे प्रसंग जिनके भजन जीवन में देखा नहीं जाता इसीलिए यह वास्तविक ही हम लोगों का तीव्र समालोचना के पात्र हैं। श्रील प्रभुपाद कहते थे कि-“उन्नत व्यक्ति ही हर वक्त आक्रमणों का विषय बनते है।” अभी भी हमारे समाज में मिर्जाफ़र के वंशज जीवित है एवं विशाल वंशावली विस्तार पूर्वक सनातन धर्म के ऊपर आक्रमण करने में सदा उद्योगी है । एक घने जंगल से एक हींस्र जंगली जानवर अर्थात् शेर या सिंह को उठा के लाना संभव हो सकता है, किंतु मनुष्य के हींस्र मन-रूप जंगल से भयंकर हिंसा विद्वेष रूप पशु को उठा के लाना वाक़ई ही असंभव है, नहीं तो ऐसा होना संभव नहीं हो पाता । जो साधु अजातशत्रु हैं, सब के प्रति समभाव सम्पन्न अर्थात् मैत्री और प्रीति के बंंधन में सबके साथ जुड़ा हुआ है, सब का परम मंगल चाहने वाले, इनको भला कौन सा पाषंड शत्रु के आसन में बैठाना चाहेगा? यह बड़े ही आश्चर्य का तथा अद्भुत विषय है । श्रील प्रभुपाद कहते थे कि- “फूलों में मधु रहता है लेकिन वह प्रकाश करने वाला होता है मधुकर या मधुमक्खी (सारंग का मतलब ही है सारभुक), फूलों में जहर भी रहता है लेकिन यह प्रकाश करने वाला है लुताकिट । यद्यपि मधु संग्रह करने के लिए मधुकर को लुताकिट के ऊपर भरोसा करने की ज़रूरत नहीं पड़ती अर्थात् केवल अपनी प्रचेष्ठा से ही मधुकर मधु संग्रह कर सकता है, फिर भी ना जाने क्यों लुताकिट और मधुकर इन दोनों के बीच में कभी-कभी आपस में लड़ाई हो जाती है। विष सतत् परित्यज्य वस्तु है, फिर भी फूल से विष के इलावा मधु प्राप्त करना संभव नहीं होता,क्योंकि एक मात्र मधुकर का ही ऐसी क्षमता है और किसी का नहीं है ।”
क्षीर सागर मंथन करके जो भयंकर हलाहल विष उत्पन्न हुआ था— वह महा महिम बाबा विश्वनाथ (शिवजी) ने पान किया था, इसीलिए आज इस धरती पर हम लोगों की जीवन यात्रा संभव हो पाई है एवं अंतिम में उसी क्षीर सागर मंथन के द्वारा उत्पन्न के कारण देवतायों को अमरत्व प्राप्त हुआ था । ठीक ऐसे ही समस्त सारस्वत गौड़ीय सम्प्रदाय के सागर मंथन करते हुए आप लोगों के द्वारा उगला गया जितना सारा हला हल विष उत्पन्न हुआ सारे के सारे श्री दास बाबा अकेले ने पान कर आप लोगों के लिए अमृत देना चाहा, लेकिन हाय दुर्भाग्य तो देखो ! आप लोगों की तक़दीर खोटी है और दशा भी भारी है, तो क्या किया जा सकता है? जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद जी ने कहा की,— “हममें शत-शत दुर्बलताएँ रहे तो रहने दो, शत-शत दोष रहे तो रहने दो, शत-शत अनर्थ रहे तो रहने दो किंतु मैं वाणीरुपी गौरहरि के निजजन गणों के सेवकों का सेवक होने के नाते शत-शत आक्रमण झेलते हुए और कोटि-कोटि कटाक्ष बाणों द्वारा सम्पूर्ण जर्ज्जरित होकर भी आत्म-संशोधन के और आत्म-शासन के वास्ते हर प्रकार की अपक्षिकताओं से वर्जित हो कर, फिर भी मूल आश्रय विग्रह का ऐकांतिक पक्ष लेकर यदि अगर निर्भीक कंठ से परम सत्य के बारे में प्रचार कर पाया तो जन्म-जन्मांतर के बाद भी मैं स्वरूप-रघुनाथ-कविराज-नरोत्तम-भक्तिविनोद वाणीरुप गौर के गणों मे गणों में गणित हो पाऊँगा ।”
उन्होंने और भी कहा कि— “अनन्त कोटि जन्मों तक मेरा हरिभजन न हो पाए तो न हो, फिर भी सावधानी से रहना है ताकि स्वरूप-रघुनाथ-कविराज-नरोत्तम-भक्तिविनोद वाणी विरोधी चिन्ता श्रोत और कार्यकलापों का अनुमोदन करने हेतु मेरा चित्त धावित न हो पाए। निरपेक्षरूप में आत्म-संशोधन के लिए और आत्म-शासन के वास्ते इस विषय के ऊपर प्रतिवाद करने के लिये कभी भी मेरे हृदय में किसी प्रकार का हृतकंप उदित न हो।”
निश्चित रूप से किसी ना किसी प्रकार के प्ररोचना का शिकार होकर बेचारा कच्चा लेखक महाशय इस प्रकार की झूठी बाज़िमात करने वाली गालियाँ संकलन करने में व्यस्त होकर दक्ष प्रजापति के जैसे अपने भयंकर अमंगल को बुला कर लाये हुए हैं । सद्बुद्धि वाली जनता और भक्तवृंद अवश्य ही इस विषय के ऊपर अंदाज़ा लगा सकते हैं। एक के ग़द्दारी का हिसाब किताब दूसरे (श्री दास बाबा) के ऊपर लागू करके कौनसे गुप्त उद्देश्य के साधन में लेखक ठाकुर महाशय लगे हुए हैं ? लेखक महाशय का जन्म कब और कैसे हुआ, जिससे वे इतनी पुरानी खबरें जान गए ?लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि— श्री दास बाबा को इस विषय पर खबर मिलने के पश्चात उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि—“यह छोड़ कर इन लोगों से और अधिक क्या आशा किया जा सकता है! यूँ समझ लो की यही मेरा परम सत्य की सेवा के लिए पुरुस्कार है लेकिन यह बात पक्की है कि जितने सारे झूठे इल्ज़ाम यह लोग लगाना चाहते हैं, एक का भी प्रत्यक्ष प्रमाण दे नहीं पाएंगे,ऊपर से सारे प्रत्यक्ष अनुकूल प्रमाणावली भागवत इच्छा से वह लोग हम लोगों के पास प्राप्त कर सकते हैं ,अवश्य यदि अगर इन लोगों में सद्इच्छा है तभी। यह बात ध्रुव सत्य है कि— श्रील गुरुदेव अतीव सुप्रसन चित से पूर्ण कृपा संचार पूर्वक हम को गौर वाणी सेवा में अधिकार दिया है, नहीं तो हमारे जैसे महामूर्ख की क्या योग्यता है?
इस विषय पर विशेष ध्यान दे कि— हमारे दूसरे एक गुरुभाई के प्रसंग में ही ‘महानिन्दुक’ शब्द का प्रयोग हुआ था। उन दिनों मुझे ज़्यादा तर कोई पहचानता नहीं था, हमारा बड़ा लाजुुक स्वभाव था। बहुत ही कम हरिकथा बोलने का अफ़सर मिलता था, इसीलिए हमारे प्रति उस प्रकार का झूठा विरूप मन्तव्य का कोई भी अवकाश हो नहीं सकता। यह सम्पूर्ण झूठा तथ्य है । यह सब बातें प्रवीण भक्तगण प्रायः हर कोई जानते हैं। जो लोग नए आये हैं, इन लोगों को इन विषय में कोई जानकारी नहीं है । समस्त सारस्वत गौड़ीय वैष्णव संग के पक्ष से अधिकार प्राप्त होने के बाद ही मुझे यह सारे प्रतिवाद मूलक लेखनी लिखना पड़ा था । श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के भूतपूर्व मठ रक्षक श्री भक्ति रक्षक नारायण महाराज और श्री कृष्ण चैतन्य मठ के मठ रक्षक श्री वन महाराज आदि सबके एकान्तिक इच्छा से ही वह सारे प्रतिवादमूलक जवाब देकर स्व-सम्प्रदाय की मर्यादा रक्षा करने के लिए मैं अकेला ही सबका दुश्मन बन गया । श्रीमन् नित्यानंद प्रभु से लेकर श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमाधवाचार्य अथवा श्रील प्रभुपाद आदि सबको ही आक्रमण तथा अपमान को झेलना पड़ा था, इस विषय पर मैं भला कौन हूँ! दक्ष प्रजापति मौखिक रूप से बोला था कि— ‘मैं किसी प्रकार के मात्सर्य से चालित होकर अथवा हिंसात्मक भाव के द्वारा चालित होकर इनको (शिव जी को) कुछ बोलना नहीं चाहता हूँ, क्योंकि यह बात सत्य है कि इनके द्वारा साधु गणों के आचरित विशुद्ध पंथा दूषित हुआ है। हम लोग इस बात को सच्चा मानेंगे क्या? ठीक ऐसे ही इसी प्रकार की अवांछित समालोचना अर्थात् निंदा चरम मात्सर्य दोष से दूषित है। क्या श्रील गुरुदेव घृणा करते थे बोल के ही क्या मुझे वाणी सेवा का गुरु दायित्व दिया था? घृणा करते थे बोल के ही क्या श्रील संत गोस्वामी महाराज मुझे लिखित स्नेह, आशीर्वाद पत्र में स्व-सम्प्रदाय की सेवा की प्रेरणा दी? घृणा करते थे बोल के ही क्या श्रील त्रिविक्रम महाराज अपना शरीर छोड़ने के पहले सेवक निमाई प्रभु को अपने ही व्यवहरित छाते को मुझे देने के लिए आदेश दिया था? घृणा करते थे बोल के ही क्या श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज मुझे विशेष प्रकार की कुछ सेवाएँ दिया करते थे और विदेश प्रचार में अमेरिका लेजाना चाहते थे अथवा प्रिंटिंग पब्लिकेशन डिपार्टमेंट का संपूर्ण दायित्व देना चाहते थे? क्या उन सब महाजनों की इच्छा वह प्रेरणा के इलावा क्या हम उन सब महाजनों की जीवनी लिख पाते? ऐसे बहुत से वास्तविक प्रमाण रहने के बावजूद यदि अगर कोई हमको नीचा दिखाना चाहता है— इसमें आपत्ति क्या है!”
बड़ा ही आश्चर्य का विषय यह है कि हमारा ही गौड़ीय सम्प्रदाय में क्या कोई ऐसा व्यक्ति भी है, जो समालोचना, निंदा तथा प्रतिवाद का भेद नहीं समझते हैं ? जो दूसरे सम्प्रदाय के आचार्य तथा साधु की निंदा तक सहन नहीं कर पाते अर्थात् जवाब देकर ही छोढ़ते हैं (यथा श्री रामभद्राचार्य महाराज जी के निंदा में श्री दास बाबा नें अलग-अलग भाषाओं में तीव्र प्रतिवाद किया था), यह श्री बाबा महाराज किस प्रकार से मात्सर्य दोष से दूषित हो सकते हैं? जो अनर्गल हरिकथा-कीर्तन में (विभिन्न भाषाओं में) तथा लेखनी में हर वक्त व्यस्थ रहते हैं, वह किस प्रकार से ‘तृणादपि सुनिच’ भाव वर्जित हो सकते हैं?
श्रीमन् महाप्रभु के द्वारा विरचित शिक्षाअष्टक के तीसरे श्लोक को, निन्दुक-समालोचक गण क्या मिथ्या प्रमाण करना चाहते हैं? अपनी पूरी जिंदगी को जिन्होंने निष्किंचिन भूमिका में रहते हुए केवल मात्र श्रीचैतन्य वाणी की सेवा में नियोजित किया है— यह अगर निकम्मे ही है तब फिर आप लोगों का Intelligent group क्यों हर वक्त आज तक पीछे रह गया? सारे प्रवीण भक्तगणों की बात अगर छोड़ भी दे फिर भी जब निर्मत्सर श्रील भक्ति विज्ञान भारती महाराज के जैसे इतने बड़े विज्ञजन जब हर एक प्रतिवाद की किताब आनंद में उद्वेेलित हुए अनुमोदन किया करते थे तथा प्रेरणादि तथा आशीर्वाद दिया करते थे तब फिर दूसरे किसी के द्वारा निंदा व समलोचना से क्या आता जाता है? इन्होंने श्रीधाम पुरी में एक बार श्रील प्रभुपाद के आविर्भाव तिथि उपलक्ष्य में भाषण देते हुए घोषणा कि थी कि— श्री दास बाबा के द्वारा विरचित यह सारे प्रतिवादमूलक ग्रंथादि अगर आप लोग पाठ करें तब आप वास्तविक लाभ उठा सकेंगे— क्या लेखक महाशय इस विषय में नहीं जानते ?
श्री दास बाबा के हर एक लेखनी तथा प्रवचन(कोई भी भाषा में क्यों न हो) अपनी एक अनोखी मर्यादा है, प्रायः हर एक पाठक वह श्रोता ही इस बात को ज़रूर स्वीकार करेंगे। अवश्य मात्सर्य रोग के द्वारा आक्रांत कोई भी व्यक्ति इस बात को टाल सकता है । हर किसी को इस विषय पर थोड़ी बहुत जानकारी ज़रूर है कि— इनकी लेखनी वह प्रवचन हर जगह हर समय कॉपी हुआ करते हैं, फिर भी वह इसका वे बुरा नहीं मानते हैं। इन्होंने कदापि किसी की लेखनी वह प्रवचन कॉपी करना ज़रूरी नहीं समझा, अवश्य किसी विषय पर प्रमाण उद्धार करने के लिए इंटैक्ट कॉपी तो करना ही होता है। इसमें क्या गलती है? इन्होंने अपने ही प्रयास-प्रचेष्टा के द्वारा सदा सर्वदा स्व-सांप्रदायिक वाणी वैभव को संगरक्षण तथा सम्प्रसारण के बारे में आप्राण चेष्ठा करते रहते हैं, लेकिन हम लोग विरोध के इलावा उन्हें कुछ नहीं दे सके, फिर भी इन्होंने अपने विपुल प्रयास-प्रचेष्ठा को छोड़ा नहीं है । प्रायः हर व्यक्ति अपनी-अपनी लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा संग्रह करने में व्यस्त रहते हैं, कोई भी स्व-सम्प्रदाय का मर्यादा संग्रक्षण के विषय पर चिंता करने में राज़ी नहीं है । यह बात सच नहीं है क्या? आप लोगों की मनमानी इच्छा के मुताबिक जो इच्छा लिखने वह बोलने में स्वाधीनता लाभ कर सकते हैं, लेकिन श्रील बाबा महाराज एक बूंद भी इस विषय पर विचलित नहीं है, क्योंकि श्रील प्रभुपाद बोलते थे कि— “अगर समग्र जगत हमारा विरुद्ध में चले जायें, तथा जो लोग हमारे पास आए थे वह लोग भी अगर एक -एक करके सारे मुझे छोड़ कर चले जाएँ, फिर भी मैं श्रीगुरु पादपद्म के छत्र छाया में खड़े होकर निर्भीक रूप से उसी परम सत्य के कीर्तन करने से पीछे नहीं हठुँगा”। परमसत्य वस्तु के ग्राहक अति विरल व सुदुर्लभ हैं । परम सत्य वस्तु के कीर्तनकारी कदापि लोक-प्रियता लाभ नहीं कर पाते हैं (यद्यपि भगवान इसमें परम संतुष्ट हो जाते हैं) कदाचित एक-दोजन श्रील प्रभुपाद के बारे में उनके श्रीगुरुदेव के पास निंदा-चुगली करने के लिए आते थे लेकिन वे इन सब लोगों की बात परिपूर्ण रूप से ख़ारिज करते हुए कठोर भाषा में जवाब देते थे कि — “सरस्वती हर वक्त शुद्ध भक्ति के बारे में कहते हैं, क्या आप लोगों से यह सब सहन नहीं हो पाता? ठीक ऐसे ही श्रील बाबा महाराज का विशुद्ध आचार-विचार तथा प्रचार प्रसंग में ऐसा हो गया कि मानो लंका में आग लग गई हो । कोई भी इनको सहन नहीं कर पाता, क्या यह बात ठीक नहीं है? दैत्य राज हिरण्यकशिपु ने तब तक श्रीप्रह्लाद महाराज जी को स्नेह दिखाया, जब तक इन्होंने परम सत्य का प्रकाशित रूप में कीर्तन नहीं किया था ।
श्रील तीर्थ गोस्वामी महाराज ,श्रील कुंजविहारी विद्याभूषण, श्रील त्रिविक्रम महाराज और इनके अपने श्रीगुरुदेव के जीवन लीला लिख के क्या इनको नोबेल पुरस्कार प्राप्त करना था? वैष्णवगणों के आदेश के द्वारा प्रेरित होकर इन्होंने यह सारी सेवाएँ कि थी, इसमें मात्सर्य की आग में जल जाने का कारण क्या हो सकता है?
श्री दास बाबा—‘यह एक छद्म नाम है । ऐसा छद्म नाम का व्यवहार का कारण ही होता है अपने नाम को गुप्त करके लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा आदि को दूर रखना, तो फिर पाखंडी लेखक ठाकुर उल्टा बोलकर गंदगी फैलाने की कोशिश करने में क्यों लगे हुए हैं? बहुत सारे ऐसे भी किताब हैं जिनमें श्रील बाबा महाराज वर्तमान मठ आचार्य के नाम पर ही ग्रंथ संपादक का नाम प्रकाश किया था। यहाँ तक की कई-कई किताब तो ऐसे भी है जिनमें ‘श्री दास बाबा’ अथवा दूसरा कोई नाम ही नहीं है, यथा श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से प्रकाशित ‘भगवत साक्षात्कार’ नामक ग्रन्थ जो की श्रील तुर्याश्रमी महाराज के द्वारा संकलित किया गया था तथा श्रील बाबा महाराज के द्वारा सम्पादित हुआ था । निर्मत्सर वैष्णव यथा डॉ. हालदार तथा बहुत सारे वैष्णव जनों ने इस विषय पर बयान दिया कि— यह बाबा महाराज ‘श्री दास बाबा’ नामक छद्म नाम से निरंतर वाणी सेवा करते हुए अपनी लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा हर वक्त दूर रखना चाहते हैं, किंतु जब से प्रवीण वैष्णवों ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप में अपना नाम देने के लिए आदेश किया तब से ये अपना संपूर्ण नाम देने के लिए राज़ी हुए। वैष्णवी प्रतिष्ठा लेने के खातिर क्योंकि संपादक को ही अपने लेखनी का सम्पूर्ण दायित्व लेना पड़ता है । जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद ‘वैष्णव के?’— इस लेखनी में सुस्पष्ट रूप में उल्लेख किया कि—
“कनक-कामिनी प्रतिष्ठा बाघिनी।
छाड़ियाछे जारे सेई तो वैष्णव ।।
अथवा
वैष्णवी प्रतिष्ठा ताते करो निष्ठा ।
ताहा न भजीले लभीभे रौरव ।।”
हर एक शुभ बुद्धि सम्पन्न जनगण तथा भक्तवृंद निश्चित रूप से इस विषय के ऊपर पक्का विचार करेंगे, इसी प्रकार के सुदृढ़ विश्वास के साथ कुछ सामान्य प्रश्न इन लोगों के सामने हम रखना चाहते हैं जिन्होंने श्रील बाबा महाराज की झूठी निंदा करने का इतना बड़ा साहस किया ।
(१) बेचारा लेखक महाशय अगर बाल्य काल से उसी ग्रंथ (विभ्रांत निरासन) के विषय में श्रील बाबा महाराज जी सामान्यज्ञान विहीन विचारों की खबर रखते आए हैं तब फिर इतने सुधीर्घ काल इंतजार के पश्चात आज अपने अंतिम समय में मस्तिष्क गर्म करने का छुपा हुआ कारण क्या है?
(२) आप लोगों के द्वारा संस्थापित intelligent agency के सदस्य वृंद का एक-एक का नाम और परिचय दे सकते हो क्या?
(३) जिन सब महाजनों का नाम उल्लेख करके श्री दास बाबा का निंदा गान किया गया है इन लोगों के साथ महाराज जी के आम्ने-सामने का प्रमाण दे सकते हैं क्या?
(४) जिन लोगों ने श्रील प्रभुपाद को मल-मूत्र के जैसे त्याग करते हुए उनके और उनके द्वारा प्रतिष्ठित श्रीगौड़ीय मठ के सर्वनाश करने में जुटे हुए थे और आज भी हैं यह सब लोग आप लोगों के इतने प्रिय पात्र कैसे हो सकते हैं?
(५) निश्चित रूप से आप लोगों के अतीव निम्न मान के विचार परिक्रिया से क्या यह बात साबित नहीं होती है कि आप लोग विपरीत पक्ष के जन है? अघासुर, बक़ासुर इत्यादि इन सब ने भी पहले पहले ‘हम श्रीकृष्ण के पक्ष के जन हैं’ एसा परिचय दिया था, किन्तु अंतिम में इन सभी के दूषित क्रिया कलापों से यह स्पष्ट रूप प्रमाणित हुआ था कि यह सब कृष्ण विरोधी पक्ष कंस के एजेंट थे?
(६) इन सब विरोधी गोष्ठी को कैसे श्रील प्रभुपाद का पार्षद बोला जा सकता है?
(७) यह ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वासघातक मीरजाफर के ही क्रिया कलाप के बराबर है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर परमहंस जगद्गुरु प्रभुपाद के सिद्धांत विचार के अनुसार हमें श्रीगौड़ीय मठ के भक्त के रूप में परिचित होने के लिए कौन-कौन सी योग्यताएँ चाहिए?
क्या यह सब गुणावली श्री दास बाबा में नहीं देखा गया? आप लोगों के intelligent agency के सदस्यों के अंदर में यह सब गुणावली दिखायी पड़ती हैं?
(८) आप लागों के द्वारा संस्थापित intelligent agency में आप के जैसे महा-महा intelligent सदस्य और कितने है? इन लोगों का सम्पूर्ण नाम और परिचय दे सकते हैं क्या?
(९) सर्व-जन-मान्य शुभिक्षत एक महान व्यक्तित्व के संबंध में ऐसे किस्म की समालोचना वह निंदा का परिणाम क्या है जानते है के नहीं?
(१०)अमानव श्री दास बाबा के संबंध में श्री परमहंस आचार्यवर्य श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी के दूसरे कौन-कौन महामहिम प्रवीण शिष्य गणों की बात लेखक ठाकुर महाशय ने बोलना चाहा— जिन लोगों ने श्री दास बाबा के कुत्सित-जघन्य स्वरूप से अवगत है?
श्रीचैतन्य मठ के अंदर एक बार सेवक परमानद प्रभु के द्वारा परिवेषित मध्याह्नकालीन महाप्रसाद श्रील प्रभुपाद जी की भजन कुटीर में उनके सामने बहुत देर तक पड़ा हुआ था, किंतु श्रील प्रभुपाद एकान्त उदासीन रूप से खिड़की के बाहर पेड़-पौधों में दृष्टि निक्षेपपूर्वक क्या कुछ एक विशेष विषय पर तन्मय रूप से खो गए थे । बहुत देर पश्चात सेवक परमानंद प्रभु अचानक श्रील प्रभुपाद जी की भजन कुटीर में वापस आ कर देखा कि इन्होंने ने तब तक प्रसाद पाया ही नहीं था, इसीलिए इन्होंने प्रश्न किया कि— “प्रभुपाद! आप बाहर क्या देख रहे हैं? अभी तक प्रसाद क्यों नहीं पाया? श्रील प्रभुपाद जी ने गंभीर रूप से उत्तर दिया कि— “मैं देख रहा था कि कैसे आप लोगों ने अपने तक़दीर को जला दिया है। अंतर द्वन्द्व के द्वारा यदुवंश के जैसे सारे ध्वंस हो जाएँगे ।”— ठीक वही होने जा रहा है ।
अंत में दण्डवत प्रणाम सहित श्री दास बाबा के अनुगत तथा स्वपार्षद श्रील प्रभुपाद के आदर्श को अनुसरण करने वाले सेेकवृन्द।
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